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किस तरह से राजनीति अपने मुनाफे के लिए लोकतंत्र के स्तंभ को नुकसान पहुंचा रही है इसका जीता-जाता उदाहरण मुजफ्फरनगर हिंसा से मिलता है। एक चैनल के ‘ऑपरेशन दंगा’ नाम से चलाए गए स्टिंग ऑपरेशन में हिंसाग्रस्त इलाके में तैनात पुलिस अधिकारी बता रहे हैं कि कवाल में हुई शुरुआती हिंसा के बाद डबल मर्डर के सात आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया था, मगर लखनऊ से “आजम” नाम के नेता के फोन के बाद उन लोगों को छोड़ना पड़ा था।
चैनल के सबसे बड़े खुलासे के बाद सियासी हलकों में हड़कंप मच गई है। उत्तर प्रदेश सरकार सवालों के घेरे में आ गई है। बीजेपी और बीएसपी की मांग है कि अखिलेश सरकार को बर्खास्त किया जाए और सूबे में राष्ट्रपति शासन लागू हो। वहीं कांग्रेस स्टिंग ऑपरेशन में हुए खुलासे की जांच कराने की मांग कर रही है। उधर मुजफ्फरनगर दंगों से जुड़े एक कथित स्टिंग ऑपरेशन में नाम उछलने के बाद विपक्ष के निशाने पर आए उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ मंत्री आजम खान ने कहा है कि उनका इस मामले से कोई लेना-देना नहीं है और न ही वह इस बारे में कोई सफाई देना चाहते हैं।
आज का मुद्दा
राजनीति के चाल-चरित्र-चेहरे के विषय में कयास लगा पाना वाकई बेहद मुश्किल है। इस स्टिंग आपरेशन के बाद यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या मुजफ्फरनगर दंगा प्रायोजित था?
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