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इसे स्वस्थ लोकतंत्र की मजबूती ही कहेंगे जहां बड़े से बड़े नेता को पांच साल में कम से कम एक बार जनता के दरबार में हाजिरी जरूर लगानी पड़ती है। उन्हें अपने कामों का हिसाब-किताब जनता के समक्ष रखना ही पड़ता है। तब वहां जनता नेताओं के काम का मूल्यांकन करके अगले पांच साल के लिए उनके भाग्य को तय करती है। जिस नेता ने अच्छा काम किया है उसे तो कोई फिक्र नहीं, लेकिन जिसने सत्ता का दुरुपयोग कर संसाधनों का गलत इस्तेमाल किया है जनता उसे सजा जरूर देती है।
जनता के इसी आक्रोश से बचने के लिए चुनाव में राजनीतिक पार्टियों ने एक नया तरीका अपनाया है. वह तरीका है – मुद्दों पर राजनीति कम शाब्दिक और व्यक्तिगत हमलों पर ज्यादा से ज्यादा राजनीति करना। क्या हो सत्ता पक्ष क्या हो विपक्ष दोनों ही एक-दूसरे की टांग खींचने में व्यस्त रहते हैं। उन्हें न तो जनहित आधारित मुद्दों की फिक्र है और न ही देश की। एक पार्टी ने सत्ता में रहते हुए अगर बुरे काम किए हैं तो दूसरी पार्टी देश की जनता को अच्छा भविष्य देने की बजाय अपशब्द भाषा का प्रयोग करके व्यक्तिगत हमले करती है और सत्ता में आने का ख्वाब देखती है।
सवाल यहां यह उठता है कि जिस तरह से पार्टियां जनहित संबंधित मुद्दों से परे हटकर सनसनीखेज तरीके से एक-दूसरे के खिलाफ शाब्दिक युद्ध का खेल, खेल रही हैं। उससे जनता में राजनीतिक पार्टियों के प्रति मोह बढ़ने की बजाय और ज्यादा घटेगा, जनता राजनीति से और ज्यादा दूर भागेगी?
आज का मुद्दा
क्या पार्टियों के लिए मुद्दों की बजाय व्यक्तिगत हमले करना ज्यादा अहम बन चुका है?
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