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राजनीति में दूसरों के लिए खाई खोदने की परंपरा रही है लेकिन नासमझी से खुद कोई अपने लिए खाई खोदे यह कम ही देखा गया है। जिस तेजी के साथ राष्ट्रीय राजनीति में आम आदमी पार्टी ने अपनी पहचान बनाई थी लगता है वह पहचान धीरे-धीरे धूमिल होती नजर आ रही है। कौन कह सकता है कि कुछ महीने पहले तक राष्ट्रीय पार्टियों को अपनी रणनीति में बदलाव लाने के लिए मजबूर करने वाली ‘आप’ आज अपने बिखरे हुए कुनबे को समटने में लगी हुई है। पार्टी के सभी वरिष्ठ नेता और बुद्धिजीवी पार्टी से या तो किनारा कर चुके हैं या फिर विचार कर रहे हैं। आम आदमी पार्टी में उपजा इस तरह का बिखराव कई तरह के सवाल खड़े कर रहा है।
1. सबसे पहला सवाल तो उठता है कि एक बनी-बनाई पार्टी आज बिखराव की स्थिति में कैसे पहुंच गई?
2. कई आंदोलनों और संघर्षों के बाद जनता का जो विश्वास आम आदमी पार्टी ने हासिल किया था, वह एक झटके में कैसे नष्ट हो गया?
3. सवाल आम आदमी के उन बुद्धिजीवियों से भी है जो पार्टी के अच्छे दिनों में पंक्ति में सबसे आगे दिखते थे लेकिन जब बुरा वक्त आया तो पार्टी को बीच मझधार में छोड़कर भाग निकले, आखिर क्यों?
आज का मुद्दा
कौन है आम आदमी पार्टी के बिखराव का दोषी?
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